
भारतीय राजनीति में एक बार फिर संविधान की प्रस्तावना को लेकर बहस गरमा गई है। इस बार यह चर्चा किसी साधारण नेता ने नहीं, बल्कि देश के उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ द्वारा दिए गए एक बेहद तीखे और वैचारिक बयान से शुरू हुई है। उन्होंने आपातकाल के दौरान संविधान की प्रस्तावना में ‘धर्मनिरपेक्ष’ और ‘समाजवादी’ शब्दों को जोड़ने को लेकर उसे “सनातन की आत्मा का अपवित्र अनादर” और “नासूर” करार दिया।
यह बयान उस समय आया है जब कुछ दिन पहले ही राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS) के सरकार्यवाह दत्तात्रेय होसबले ने भी इसी मुद्दे को सार्वजनिक मंच पर उठाया था। अब उपराष्ट्रपति के बयान ने इस बहस को एक संवैधानिक और राजनीतिक टकराव का रूप दे दिया है।
उपराष्ट्रपति ने क्या कहा?
उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ ने यह टिप्पणी उपराष्ट्रपति भवन में आयोजित एक विशेष कार्यक्रम के दौरान की। उन्होंने कहा, “प्रस्तावना संविधान की आत्मा होती है, और भारत की संविधान प्रस्तावना दुनिया में अद्वितीय है। लेकिन 1976 में आपातकाल के दौरान 42वें संविधान संशोधन के तहत इसमें जोड़े गए शब्द ‘समाजवादी’ और ‘धर्मनिरपेक्ष’ हमारे संविधान की मूल आत्मा के विरुद्ध हैं। यह ‘हम भारत के लोग’ के नाम पर किया गया एक धोखा है।”
धनखड़ ने आपातकाल (25 जून 1975 – 21 मार्च 1977) को भारतीय लोकतंत्र का सबसे अंधकारमय दौर करार दिया और कहा कि “जब देश के नागरिकों के मौलिक अधिकार छीने गए, उस समय संविधान की आत्मा में छेड़छाड़ की गई।” उन्होंने इसे न्यायपालिका, लोकतंत्र और जनता की चेतना के साथ एक क्रूर मजाक बताया।
‘अपरिवर्तनीय’ प्रस्तावना पर सवाल
धनखड़ ने कहा कि दुनिया के किसी भी देश में संविधान की प्रस्तावना में बदलाव नहीं किया गया, लेकिन भारत में ऐसा हुआ। “प्रस्तावना अपरिवर्तनीय होती है। यह संविधान का मूलाधार है, इसकी बीज रूप संरचना है। लेकिन इसे ऐसे समय बदला गया जब देश की जनता बंदिशों में थी।” उन्होंने सवाल उठाया कि क्या ऐसे समय में लिए गए फैसले सही कहे जा सकते हैं जब लोग न्याय तक नहीं पहुंच पा रहे थे, और लोकतंत्र दबाया जा रहा था?
केसवनंद भारती और अंबेडकर का हवाला
धनखड़ ने अपने भाषण में 1973 के केसवनंद भारती बनाम केरल राज्य के ऐतिहासिक निर्णय का भी उल्लेख किया। यह वही फैसला है जिसमें सर्वोच्च न्यायालय ने संविधान की ‘मूल संरचना सिद्धांत’ को मान्यता दी थी।
उन्होंने कहा, “न्यायमूर्ति एच. आर. खन्ना ने प्रस्तावना को संविधान की व्याख्या के लिए मार्गदर्शक बताया।”
उपराष्ट्रपति ने डॉ. बी. आर. अंबेडकर को भी याद करते हुए कहा कि,“संविधान निर्माताओं ने प्रस्तावना को वैसा ही जोड़ा जैसा उन्होंने उपयुक्त समझा। अंबेडकर ने अत्यंत परिश्रम से यह कार्य किया। फिर सवाल उठता है कि जो चीज संविधान सभा ने नहीं जोड़ी, वह 1976 में आपातकाल के दौरान क्यों जोड़ी गई?”
‘संविधान बदलने की तैयारी?’ विपक्ष हुआ हमलावर
धनखड़ का यह बयान जैसे ही सार्वजनिक हुआ, विपक्षी दलों ने सरकार और उपराष्ट्रपति दोनों पर तीखा हमला बोला। कांग्रेस, समाजवादी पार्टी, तृणमूल कांग्रेस और आम आदमी पार्टी ने एक स्वर में कहा कि यह बयान “संविधान की मूल भावना से खिलवाड़ की तरफ इशारा करता है।”
कांग्रेस नेता जयराम रमेश ने कहा, “धर्मनिरपेक्षता और समाजवाद भारतीय संविधान की आत्मा हैं, इन्हें नकारने का मतलब है देश के लोकतांत्रिक ढांचे को कमजोर करना। सरकार अगर इन्हें हटाने की तैयारी कर रही है, तो यह लोकतंत्र पर सबसे बड़ा हमला होगा।”
AAP प्रवक्ता प्रियंका कक्कड़ ने कहा, “अब जब उपराष्ट्रपति भी संविधान की प्रस्तावना बदलने की बात कर रहे हैं, तो यह स्पष्ट संकेत है कि सरकार 2029 से पहले देश का चरित्र बदलने का एजेंडा चला रही है।”
आरएसएस की हालिया टिप्पणी से तालमेल
उपराष्ट्रपति का बयान इस समय और भी ज्यादा मायने रखता है क्योंकि कुछ ही दिन पहले संघ के सरकार्यवाह दत्तात्रेय होसबले ने कहा था कि, “धर्मनिरपेक्ष और समाजवाद जैसे शब्द प्रस्तावना में बाद में जोड़े गए। इन्हें संविधान की मूल संरचना का हिस्सा नहीं माना जा सकता।”
अब जब देश के दूसरे सबसे बड़े संवैधानिक पद पर बैठे व्यक्ति ने भी इन्हीं विचारों की पुष्टि की है, तो यह स्वाभाविक है कि बहस और तीखी होगयह संशोधन आपातकाल के दौरान तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की सरकार द्वारा लाया गया था। उस समय विपक्ष, प्रेस और न्यायपालिका पर भारी प्रतिबंध लगे हुए थे। हालांकि, संविधान की मूल संरचना को बदला नहीं जा सकता, यह सिद्धांत केसवनंद भारती केस में स्थापित हो चुका था। पर प्रस्तावना को संशोधन योग्य माना गया — बशर्ते वह मूल संरचना से छेड़छाड़ न करे।
‘सनातन की आत्मा का अपमान’
उपराष्ट्रपति ने बेहद भावनात्मक शब्दों में कहा: “यह एक गहरी विचारणीय बात है कि हम सनातन भारत की आत्मा को आहत करते हैं, जब संविधान की आत्मा में उन शब्दों को जोड़ते हैं जिनकी आवश्यकता संविधान निर्माताओं ने महसूस नहीं की थी। यह हजारों वर्षों की हमारी सांस्कृतिक विरासत, मूल्य और चेतना का अपमान है।”