
भारत द्वारा जम्मू-कश्मीर के पहलगाम में हुए आतंकी हमले का बदला लेने के लिए चलाए गए ऑपरेशन सिंदूर के बाद देश के अंदर और बाहर एक नई कूटनीतिक हलचल तेज़ हो गई है। जहां एक ओर भारतीय सेना ने सीमा पार आतंकवाद के ठिकानों पर सटीक और साहसिक कार्रवाई की, वहीं देश के भीतर भी विभिन्न संस्थानों ने राष्ट्रीय सुरक्षा को सर्वोपरि रखते हुए ठोस कदम उठाने शुरू कर दिए हैं। इसी कड़ी में लवली प्रोफेशनल यूनिवर्सिटी (एलपीयू) ने एक ऐतिहासिक और राष्ट्रवादी पहल की है।
एलपीयू ने भारत विरोधी रुख अपनाने वाले देशों तुर्की और अजरबैजान के साथ अपने छह बड़े शैक्षणिक समझौतों को रद्द कर दिया है। यह निर्णय न केवल भारतीय शिक्षा जगत में एक नयी मिसाल कायम करता है, बल्कि यह भी दर्शाता है कि देश की सुरक्षा और संप्रभुता के लिए अंतरराष्ट्रीय सहयोग पर भी सख्ती से पुनर्विचार किया जा सकता है।
ऑपरेशन सिंदूर: जब भारत ने लिया आतंक का करारा जवाब
ऑपरेशन सिंदूर भारतीय सेना का एक साहसिक और रणनीतिक जवाब था, जो पहलगाम में हुए आतंकी हमले के बाद शुरू किया गया। इस ऑपरेशन के तहत पाकिस्तान के भीतर मौजूद आतंकी ठिकानों को निशाना बनाया गया। जवाबी कार्रवाई इतनी प्रभावशाली रही कि पाकिस्तान बौखलाहट में युद्ध जैसे हालात पैदा करने लगा और ड्रोन हमले तक करने की हिमाकत कर बैठा। इस तनाव के बीच तुर्की और अजरबैजान ने खुले तौर पर पाकिस्तान का समर्थन किया। तुर्की ने न केवल पाकिस्तान के साथ कूटनीतिक समर्थन जताया बल्कि ड्रोन बम भी मुहैया करवाए। अजरबैजान ने भी इसी लाइन पर खड़े होकर भारत विरोधी रुख अपनाया।
एलपीयू की ऐतिहासिक पहल: तुर्की और अजरबैजान के साथ हर रिश्ता खत्म
देश की पहली यूनिवर्सिटी बनते हुए एलपीयू ने तुर्की और अजरबैजान के साथ अपने सभी एकेडमिक टाइअप्स खत्म कर दिए हैं। यूनिवर्सिटी के अनुसार, उसने इन दोनों देशों के शिक्षण संस्थानों के साथ 6 शैक्षणिक साझेदारियों को आधिकारिक रूप से रद्द किया है। इन साझेदारियों के तहत चल रहे ड्यूल डिग्री प्रोग्राम्स, फैकल्टी और स्टूडेंट एक्सचेंज, संयुक्त शोध परियोजनाएं और अकादमिक कार्यक्रम अब पूरी तरह से समाप्त कर दिए गए हैं।
एलपीयू के प्रवक्ता ने बताया कि इन दोनों देशों से आने वाले छात्रों को अब यूनिवर्सिटी में दाखिला नहीं मिलेगा, साथ ही पहले से दर्ज छात्रों की शैक्षणिक स्थिति की भी समीक्षा की जाएगी।
डॉ. अशोक मित्तल का बयान: “देशहित सर्वोपरि”
एलपीयू के फाउंडर चांसलर और राज्यसभा सदस्य डॉ. अशोक कुमार मित्तल ने इस निर्णय की पुष्टि करते हुए कहा: “जब हमारी सेनाएं अपने प्राणों की आहुति देकर सीमाओं की रक्षा करती हैं, तो हमारा भी कर्तव्य है कि हम देश और सेना के विरोधियों के साथ किसी प्रकार का सहयोग न रखें। यह सिर्फ एक शैक्षणिक निर्णय नहीं, बल्कि एक नैतिक जिम्मेदारी है।”
डॉ. मित्तल का यह बयान दर्शाता है कि भारतीय शिक्षा संस्थान अब केवल ज्ञान केंद्र नहीं रहे, बल्कि राष्ट्रीय चेतना का भी हिस्सा बन रहे हैं।
देश में तुर्की और अजरबैजान का बहिष्कार शुरू
एलपीयू का यह निर्णय ऐसे समय में आया है जब पूरे देश में तुर्की और अजरबैजान के खिलाफ बहिष्कार की भावना तेज हो रही है। व्यापारिक स्तर पर इन दोनों देशों के उत्पादों और कंपनियों के साथ संबंधों की समीक्षा की जा रही है। कई प्राइवेट और सरकारी संस्थाएं अब इन देशों के साथ अपने व्यापारिक और तकनीकी सहयोग पर पुनर्विचार कर रही हैं।
यह कूटनीतिक संदेश स्पष्ट है — भारत अपनी राष्ट्रीय सुरक्षा और स्वाभिमान के खिलाफ किसी भी प्रकार की वैश्विक साझेदारी को बर्दाश्त नहीं करेगा।
शिक्षा में भू-राजनीतिक सोच का प्रवेश
एलपीयू का निर्णय इस ओर इशारा करता है कि अब अंतरराष्ट्रीय शैक्षणिक सहयोग सिर्फ अकादमिक आधार पर नहीं, बल्कि राजनैतिक और कूटनीतिक समीकरणों के आधार पर भी तय होगा।भारतीय शैक्षणिक समुदाय अब उन देशों के साथ साझेदारी के लिए अधिक सचेत होगा, जो भारत की संप्रभुता और सुरक्षा के प्रति संवेदनशील हों। यह घटनाक्रम दिखाता है कि शिक्षा जगत में भी अब राष्ट्रीय हित और वैश्विक नीतिगत स्थिति का प्रभाव गहराई से पड़ रहा है।
अंतरराष्ट्रीय स्तर पर प्रभाव: भारत की स्थिति मजबूत
एलपीयू के इस कदम को विश्व स्तर पर भारत की बदलती कूटनीतिक स्थिति के रूप में देखा जा रहा है।एक ओर भारत आतंकवाद के खिलाफ अपने कठोर रुख को सशक्त रूप से दुनिया के सामने रख रहा है। दूसरी ओर, आंतरिक स्तर पर सभी संस्थाएं और समाज के वर्ग एक सुर में देशहित में निर्णय ले रहे हैं।
विदेश नीति विशेषज्ञों का मानना है कि यह कदम भारत की सॉफ्ट पावर को भी मजबूती देगा, जहां देश की शिक्षा नीति और संस्थान अंतरराष्ट्रीय मंच पर स्वतंत्र और आत्मनिर्भर रवैया अपनाते नजर आ रहे हैं।