
उत्तराखंड हाईकोर्ट ने एक अहम फैसले में योग गुरु बाबा रामदेव, पतंजलि आयुर्वेद लिमिटेड और इसके सह-संस्थापक आचार्य बालकृष्ण के खिलाफ दर्ज उस आपराधिक मामले को रद्द कर दिया है, जिसमें उन पर दवाओं के भ्रामक विज्ञापन के माध्यम से उपभोक्ताओं को गुमराह करने का आरोप लगाया गया था।
यह मामला 2024 में उत्तराखंड के वरिष्ठ खाद्य सुरक्षा अधिकारी द्वारा दर्ज किया गया था, जिसमें आरोप था कि पतंजलि की दवाओं—जैसे मधुग्रिट, मधुनाशिनी, दिव्य लिपिडोम टैबलेट, आदि—का प्रचार-प्रसार इस प्रकार से किया गया था कि वह जनता को भ्रमित कर सकता था और इन दवाओं को चमत्कारी उपचार के रूप में प्रस्तुत किया गया था।
क्या था पूरा मामला?
2024 में उत्तराखंड के खाद्य सुरक्षा अधिकारी ने पतंजलि आयुर्वेद और उसके प्रमुखों के खिलाफ ड्रग्स एंड मैजिक रेमेडीज (आपत्तिजनक विज्ञापन) अधिनियम, 1954 के तहत शिकायत दर्ज करवाई थी। आरोप था कि पतंजलि द्वारा निर्मित कई आयुर्वेदिक दवाओं के प्रचार में ऐसे दावे किए गए जो उनके वास्तविक औषधीय गुणों से परे थे और इस तरह वे आमजन को झूठे व भ्रामक आश्वासन देते थे।
जिन दवाओं का उल्लेख किया गया था, उनमें प्रमुख रूप से शामिल थीं:
- दिव्य मधुग्रिट टैबलेट
- मधुनाशिनी वटी
- दिव्य लिवामृत एडवांस
- दिव्य लिवोग्रिट टैबलेट
- दिव्य लिपिडोम टैबलेट
शिकायत में कहा गया था कि इन दवाओं के प्रचार में डायबिटीज, लिवर डिजीज और कोलेस्ट्रॉल जैसे रोगों के पूर्ण इलाज का दावा किया गया था, जो वैज्ञानिक रूप से सत्यापित नहीं है।
हाईकोर्ट का फैसला: सबूतों के अभाव में मामला रद्द
बाबा रामदेव, आचार्य बालकृष्ण और पतंजलि आयुर्वेद ने इस एफआईआर और हरिद्वार के CJM कोर्ट द्वारा जारी समन को हाईकोर्ट में चुनौती दी थी। याचिका की सुनवाई के बाद, उत्तराखंड हाईकोर्ट ने भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता (BNSSS) की धारा 528 के तहत समन को रद्द करने का आदेश दिया।
कोर्ट ने अपने निर्णय में स्पष्ट किया कि शिकायत में कहीं भी यह नहीं बताया गया कि विज्ञापन में किए गए दावे झूठे या मिथ्या कैसे थे। कोर्ट ने यह भी कहा कि विशेषज्ञों की कोई वैज्ञानिक रिपोर्ट या प्रमाण नहीं दिए गए जो यह दर्शाएं कि उत्पादों के दावों में कोई झूठ या अतिशयोक्ति थी।
न्यायालय का मत:
“केवल एक पत्र भेजकर याचिकाकर्ता से विज्ञापन हटाने के लिए कहना, यह साबित नहीं करता कि उस विज्ञापन में किया गया दावा गलत था। जब तक विशेषज्ञों की राय या रिपोर्ट उपलब्ध नहीं होती, तब तक केवल इस आधार पर आपराधिक कार्यवाही नहीं की जा सकती।”
समय सीमा भी बनी बड़ी वजह
कोर्ट ने यह भी कहा कि शिकायत में जिन विज्ञापनों का हवाला दिया गया, वे अधिकतर 2023 से पहले के हैं। ऐसे में, अधिनियम की समय सीमा के तहत यह शिकायत समयवर्जित (टाइम-बार्ड) हो चुकी थी। यानी कानूनी रूप से इन मामलों में मुकदमा चलाने की समय सीमा समाप्त हो चुकी थी।
सुप्रीम कोर्ट की फटकार के बाद दर्ज हुआ था मामला
यह मामला तब तूल पकड़ा था जब 2023 में सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार और उत्तराखंड राज्य सरकार को फटकार लगाई थी कि क्यों आयुष मंत्रालय के कई पत्रों और चेतावनियों के बावजूद, पतंजलि और दिव्य फार्मेसी के भ्रामक विज्ञापनों पर कोई सख्त कार्रवाई नहीं की गई। सुप्रीम कोर्ट की उस सख्ती के बाद ही राज्य सरकार के अंतर्गत आने वाले खाद्य सुरक्षा अधिकारी ने इस मामले में शिकायत दर्ज करवाई थी। हालांकि, हाईकोर्ट ने अपने निर्णय में इस तथ्य को भी दर्ज किया, लेकिन स्पष्ट किया कि सिर्फ किसी दबाव में दर्ज की गई शिकायत, जब तक सबूतों के साथ न हो, वैधानिक रूप से टिकाऊ नहीं हो सकती।
पारदर्शिता और वैज्ञानिक साक्ष्यों की कमी पर टिप्पणी
हाईकोर्ट ने इस पूरे मामले को “दस्तावेजी और वैज्ञानिक साक्ष्य विहीन” बताया। अदालत ने कहा कि ऐसे मामलों में विशेष रूप से यह ज़रूरी होता है कि विज्ञापन में किए गए दावों को स्वतंत्र विशेषज्ञों द्वारा जांचा जाए और फिर उसकी रिपोर्ट के आधार पर कार्रवाई की जाए। कोर्ट का यह भी कहना था कि किसी ब्रांड के प्रचार अभियान को केवल अनुमान या पूर्वाग्रह के आधार पर आपराधिक दायरे में नहीं डाला जा सकता, जब तक कि उसके खिलाफ स्पष्ट वैज्ञानिक रिपोर्ट या प्रमाण न हो।
पतंजलि की प्रतिक्रिया: “न्याय की जीत”
फैसले के बाद पतंजलि आयुर्वेद लिमिटेड ने एक बयान जारी करते हुए कहा कि यह “न्याय की जीत” है। कंपनी के प्रवक्ता ने कहा कि, “हमने हमेशा भारतीय परंपरा, योग और आयुर्वेद की वैज्ञानिकता को दुनिया के सामने रखा है। इस फैसले से सिद्ध होता है कि पतंजलि की मंशा कभी भी जनता को गुमराह करने की नहीं रही है।”