देहरादून नगर निगम चुनाव की सरगर्मी अब तेज हो गई है, और इस चुनाव में एक नई तस्वीर उभर कर सामने आ रही है। जहां पार्टी के भीतर टिकट बंटवारे को लेकर उम्मीदवारों में खींचतान और नाराजगी साफ तौर पर देखी जा रही है, वहीं जनता भी अपने उम्मीदवारों से पूरी तरह संतुष्ट नहीं दिखाई दे रही है। खासकर देहरादून के वार्ड 65 और 94 की जनता ने खुलकर अपनी असंतुष्टि जताई है। इन वार्डों के लोग स्थानीय मुद्दों पर पार्टी के उम्मीदवारों को जिम्मेदार ठहराते हुए उन्हें वोट देने से इंकार कर रहे हैं।
इस सर्वे में जो परिणाम सामने आए हैं, वह इस बात का संकेत देते हैं कि पार्टी विशेष उम्मीदवारों को लेकर जनता के दिलों में जगह बनाने में नाकाम साबित हो रही है। हालांकि, उम्मीदवार अपनी पार्टी और सिंबल का हवाला देते हुए चुनावी मैदान में उतरने का दावा कर रहे हैं, लेकिन असल में उनका काम और स्थानीय जनता से उनका संबंध कहीं न कहीं इस चुनावी दौड़ में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले हैं।
टिकट बंटवारे में असंतोष और नाराजगी
नगर निगम चुनावों में टिकटों के वितरण को लेकर बीजेपी और कांग्रेस दोनों ही पार्टियों में अंदरूनी गहमा-गहमी है। खासकर देहरादून के वार्ड 65 और 94 में जहां जनता ने अब तक के अपने प्रतिनिधियों के कामकाज से नाखुशी जाहिर की है। इन दोनों वार्डों के लोग स्पष्ट रूप से कह रहे हैं कि जो उम्मीदवार उन्हें टिकट लेकर आए हैं, वे उनके उम्मीदों पर खरे नहीं उतरे।
सर्वे में यह भी सामने आया कि इन वार्डों की जनता इस बार उन उम्मीदवारों को वोट देने का मन बना चुकी है, जो उनके बीच रहते हुए, उनके सुख-दुख में साथ रहें, और उनकी समस्याओं को सुलझाने के लिए दिन-रात काम करें। जबकि पार्टी के उम्मीदवारों को लेकर जनता का कहना है कि उन्हें केवल चुनावी समय में याद किया जाता है, इसके बाद उनकी ओर से कोई भी सक्रियता नहीं देखी जाती।
वार्ड 65 और 94 के मतदाताओं की नाराजगी
वार्ड 65 और 94 के मतदाता अपनी असंतुष्टि को खुलकर व्यक्त कर रहे हैं। इन वार्डों के मतदाताओं का कहना है कि क्षेत्र के उम्मीदवारों ने अपने वादों को नजरअंदाज किया और जनता के मुद्दों को हल करने के बजाय निजी स्वार्थों को प्राथमिकता दी। वार्ड 65 और 94 की जनता का साफ कहना है कि वे उस व्यक्ति को चुनेंगे, जो उनके लिए लगातार काम करेगा, न कि केवल चुनावों के समय उनका समर्थन मांगने आएगा।
इसके अलावा, इस सर्वे के दौरान यह भी पाया गया कि इन दोनों वार्डों में बीजेपी ने उन उम्मीदवारों के टिकट काट दिए हैं, जो लंबे समय से क्षेत्र में जनता के बीच सक्रिय थे और जनता के मुद्दों पर काम कर रहे थे। ऐसे में, पार्टी के भीतर अपनी पहचान और रुतबा रखने वाले नेताओं ने उन टिकटों पर कब्जा कर लिया, जो क्षेत्रीय समस्याओं को समझते थे और जनता के बीच अपने काम की पहचान बना चुके थे।
पार्टी की अंदरूनी राजनीति का प्रभाव
बीजेपी और कांग्रेस दोनों ही पार्टियों में टिकट वितरण में खासे मतभेद सामने हैं। जहाँ कुछ उम्मीदवार अपनी पार्टी के सिंबल और टिकट के साथ चुनावी मैदान में उतरने का दावा कर रहे हैं, वहीं कुछ उम्मीदवार अपनी उम्मीदों पर पानी फिरने के बाद निर्दलीय उम्मीदवार के तौर पर चुनावी मैदान में उतरे हैं। खासकर बीजेपी में यह बात सामने आई है कि पार्टी के कुछ बड़े नेताओं ने उन उम्मीदवारों के टिकट काट दिए हैं, जिनकी जनता के बीच मजबूत पहचान थी।
इससे पार्टी के भीतर एक नई राजनीति का जन्म हुआ है, जिसमें कुछ पुराने और अनुभवी नेताओं के बजाय नये चेहरों को प्राथमिकता दी जा रही है। इसी का असर चुनाव में देखने को मिल सकता है, क्योंकि जनता का मानना है कि कुछ टिकटों के लिए “हाई कमांड” से ही फैसले लिए गए हैं, न कि स्थानीय मुद्दों और क्षेत्र की समस्याओं के आधार पर।
निर्दलीय उम्मीदवारों का उत्थान
इस टिकट बंटवारे की राजनीति का परिणाम यह हुआ है कि कुछ ऐसे उम्मीदवार मैदान में हैं, जिन्होंने पार्टी टिकट मिलने के बावजूद अपनी उम्मीदवारी को खारिज कर दिया और अब निर्दलीय चुनाव लड़ने का फैसला किया है। ये उम्मीदवार खुद को जनता से जुड़ा हुआ बताते हैं और उनकी राय में, पार्टी के टिकट पर चुनाव लड़ने से अधिक महत्वपूर्ण है क्षेत्र की समस्याओं को सही तरीके से हल करना।
कुछ उम्मीदवार मायूस होकर चुनावी मैदान से बाहर हो चुके हैं, जबकि अन्य अपने चुनावी प्रचार में कड़ी मेहनत करने में लगे हुए हैं। इन निर्दलीय उम्मीदवारों का कहना है कि वे स्थानीय मुद्दों और जनता के साथ खड़े रहने वाले उम्मीदवार के तौर पर जनता के सामने जाएंगे।
बीजेपी और कांग्रेस के उम्मीदवारों का संकट
बीजेपी और कांग्रेस के उम्मीदवारों के लिए यह चुनाव आसान नहीं है। पार्टी विशेष के उम्मीदवारों का यह मानना है कि वे जनता के बीच अपने काम के आधार पर वोट प्राप्त करेंगे, लेकिन असल में उनकी छवि और कामकाज के बारे में जनता की राय पूरी तरह से अलग है।
जब टिकटों की बंटवारे की बात आती है, तो हर पार्टी में अंदरूनी राजनीति और व्यक्तिगत स्वार्थों का प्रभाव देखा जाता है। यही कारण है कि इस बार के चुनाव में दोनों प्रमुख दलों के उम्मीदवार अपने-अपने टिकटों को लेकर जनता के बीच विश्वास नहीं बना पा रहे हैं।
जनता की बदलती राय
दूसरी ओर, जनता की राय बदलने की एक और वजह यह हो सकती है कि अब लोग राजनीतिक पार्टियों से ज्यादा अपने क्षेत्रीय प्रतिनिधियों के बारे में सोचने लगे हैं। जनता के अनुसार, अब किसी पार्टी का सिंबल या नाम महत्त्वपूर्ण नहीं है, बल्कि यह देखना जरूरी है कि उम्मीदवार उनके क्षेत्र के लिए कितना काम कर रहा है और उनके मुद्दों को सुलझाने के लिए क्या कदम उठा रहा है।
इस चुनाव में टिकट बंटवारे की राजनीति ने एक नई दिशा में मोड़ लिया है और यह दिखा दिया है कि अब उम्मीदवारों को सिर्फ पार्टी का सिंबल नहीं, बल्कि अपने कार्यों और जनता के बीच अपने संपर्क को भी प्राथमिकता देनी होगी।