
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS) के वरिष्ठ नेता दत्तात्रेय होसबोले के ताजा बयान ने देश की राजनीति में नया विवाद खड़ा कर दिया है। होसबोले ने गुरुवार को दिए एक बयान में यह कहा कि “धर्मनिरपेक्ष” और “समाजवाद” जैसे शब्दों को संविधान की प्रस्तावना में इमरजेंसी के दौरान जोड़ा गया था, जो बाबा साहब भीमराव अंबेडकर की मूल भावना का हिस्सा नहीं थे। उन्होंने यह भी कहा कि अब समय आ गया है कि इन शब्दों के प्रस्तावना में बने रहने पर ‘विचार’ किया जाए।
होसबोले के इस बयान ने विपक्षी दलों, खासकर कांग्रेस, को केंद्र और आरएसएस के खिलाफ मोर्चा खोलने का मौका दे दिया है। कांग्रेस नेता और लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष राहुल गांधी ने इस बयान को संविधान पर सीधा हमला बताते हुए बीजेपी और आरएसएस की मंशा पर गंभीर सवाल खड़े किए हैं।
राहुल गांधी का तीखा हमला: “इनका सपना है मनुस्मृति का भारत”
राहुल गांधी ने सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म ‘X’ पर पोस्ट करते हुए कहा, “संविधान इन्हें चुभता है क्योंकि वो समानता, धर्मनिरपेक्षता और न्याय की बात करता है। बीजेपी-आरएसएस को संविधान नहीं, मनुस्मृति चाहिए। ये बहुजनों और गरीबों से उनके अधिकार छीनकर उन्हें दोबारा गुलाम बनाना चाहते हैं।”
उन्होंने कहा कि यह कोशिश बाबा साहब अंबेडकर के विचारों और भारत की लोकतांत्रिक आत्मा के खिलाफ है। राहुल गांधी ने आगे लिखा, “संविधान जैसा ताकतवर हथियार उनसे छीनना इनका असली एजेंडा है। आरएसएस ये सपना देखना बंद करे। हम उन्हें कभी सफल नहीं होने देंगे। हर देशभक्त भारतीय आखिरी दम तक संविधान की रक्षा करेगा।”
कांग्रेस पार्टी ने भी पार्टी स्तर पर एक प्रेस कांफ्रेंस कर इस मुद्दे पर केंद्र सरकार और आरएसएस को घेरते हुए इसे “संविधान को नष्ट करने की सुनियोजित साजिश” बताया।
क्या कहा था दत्तात्रेय होसबोले ने?
गुरुवार को एक कार्यक्रम में बोलते हुए दत्तात्रेय होसबोले ने कहा कि: “समाजवाद और धर्मनिरपेक्ष शब्दों को संविधान की प्रस्तावना में 1976 में इमरजेंसी के दौरान जोड़ा गया। जब मौलिक अधिकार निलंबित थे, संसद निष्क्रिय थी और न्यायपालिका पंगु हो गई थी, तब इन्हें संविधान में डाला गया।”
उन्होंने यह भी जोड़ा कि: “इस मुद्दे पर चर्चा होनी चाहिए कि क्या अब भी इन शब्दों का प्रस्तावना में होना जरूरी है या नहीं।”
होसबोले के इस बयान को संविधान की मूल भावना में हस्तक्षेप के रूप में देखा जा रहा है। साथ ही यह सवाल भी उठाया जा रहा है कि क्या यह मोदी सरकार के तीसरे कार्यकाल में संविधान की मूल प्रस्तावना में बदलाव की दिशा में पहला कदम है?
कांग्रेस का पलटवार: ‘संविधान को मिटाने की कोशिश’
कांग्रेस ने आरएसएस और बीजेपी पर निशाना साधते हुए आरोप लगाया कि यह “बाबा साहब के संविधान को नष्ट करने की कोशिश” है।
पार्टी प्रवक्ता ने कहा, “जब संविधान लागू हुआ था, तब आरएसएस ने इसका विरोध किया था और इसकी प्रतियां जलाई थीं। आज वही सोच फिर से सक्रिय हो रही है। बीजेपी के नेता खुलेआम कह रहे थे कि उन्हें संविधान बदलने के लिए 400 सीटें चाहिए। अब उनका असली चेहरा सामने आ रहा है।”
कांग्रेस का दावा है कि अगर संविधान से धर्मनिरपेक्षता और समाजवाद जैसे मूलभूत सिद्धांत हटाए गए, तो यह भारत की लोकतांत्रिक आत्मा के खिलाफ होगा। पार्टी ने यह भी साफ किया कि वह किसी भी कीमत पर संविधान की रक्षा के लिए लड़ाई लड़ेगी।
धर्मनिरपेक्षता और समाजवाद: एक ऐतिहासिक संदर्भ
ध्यान देने वाली बात है कि भारतीय संविधान की मूल प्रस्तावना में ‘धर्मनिरपेक्ष’ और ‘समाजवाद’ शब्द नहीं थे। इन्हें 42वें संविधान संशोधन के जरिए 1976 में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की सरकार ने आपातकाल के दौरान जोड़ा था। हालांकि इन शब्दों के जुड़ने के बाद यह सिद्धांत भारतीय लोकतंत्र का हिस्सा बन गए, और भारतीय न्यायपालिका ने भी अपने विभिन्न निर्णयों में इन्हें ‘संविधान के मूल ढांचे’ (basic structure) का अभिन्न अंग माना है। संविधान विशेषज्ञों और राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि इन शब्दों को हटाने की कोई भी कोशिश न सिर्फ विवादास्पद होगी, बल्कि इससे देश की सामाजिक संरचना पर भी व्यापक असर पड़ेगा।
सियासी मोर्चा और संभावित आंदोलन
आरएसएस नेता के बयान के बाद न सिर्फ कांग्रेस बल्कि अन्य विपक्षी दल जैसे राजद, सपा, टीएमसी, और वामपंथी दल भी इस मुद्दे पर लामबंद होने लगे हैं। सूत्रों के मुताबिक, आने वाले दिनों में संविधान की रक्षा के नाम पर देशव्यापी आंदोलन की रूपरेखा बनाई जा सकती है। टीएमसी की नेता महुआ मोइत्रा ने भी बयान देते हुए कहा, “ये लोग देश को धर्मराज्य बनाना चाहते हैं, लेकिन हम भारत को संविधान से चलने वाला लोकतांत्रिक राष्ट्र बनाए रखेंगे।” CPIM नेता सीताराम येचुरी ने कहा, “संविधान की प्रस्तावना से छेड़छाड़ नहीं होने दी जाएगी। यह भारत के नागरिकों की आकांक्षा का दर्पण है।”