
भारत के प्रमुख धार्मिक स्थलों में शुमार बदरीनाथ धाम की पर्वतीय चोटियों से इस बार अप्रैल में ही बर्फ का गायब होना पर्यावरण वैज्ञानिकों के लिए एक गंभीर चेतावनी बनकर सामने आया है। यह घटना न केवल जलवायु परिवर्तन की पुष्टि करती है, बल्कि आने वाले वर्षों में ग्लेशियरों के अस्तित्व और भारत की जल व्यवस्था पर गहरा प्रभाव डाल सकती है।
जहां कभी बदरीनाथ की चोटियां मई के अंत तक बर्फ की सफेदी में लिपटी रहती थीं, वहीं अब अप्रैल में ही ये चोटियां बर्फविहीन नजर आ रही हैं। वैज्ञानिकों का कहना है कि यह बदलाव ग्लोबल वार्मिंग और बढ़ती मानवीय गतिविधियों का प्रत्यक्ष परिणाम है। विशेषज्ञों के अनुसार यह एक खतरनाक पारिस्थितिकीय असंतुलन की ओर इशारा करता है, जो हिमालयी क्षेत्र और उससे जुड़े करोड़ों लोगों के जीवन को प्रभावित कर सकता है।
दो दशक में बदला मौसम का मिजाज
पर्यावरण विशेषज्ञों का कहना है कि 20 साल पहले तक बदरीनाथ धाम का दृश्य एकदम अलग हुआ करता था। अप्रैल के महीने में जब धाम के कपाट खुलते थे, तब तक वहां की घाटियां और चोटियां बर्फ से ढकी रहती थीं। मई के आखिर तक भी बर्फ की चादर देखी जा सकती थी।
अब स्थिति यह हो गई है कि अप्रैल आते-आते ही बर्फ गायब हो जाती है, और जो थोड़ी-बहुत बचती है, वह भी तेजी से पिघल जाती है।
उत्तराखंड राज्य के पर्यावरण वैज्ञानिक डॉ. अजय रतूड़ी बताते हैं, “बर्फ का अचानक गायब हो जाना और समय से पहले पिघलना एक गंभीर जलवायु संकट का संकेत है। इससे आने वाले वर्षों में ग्लेशियरों की उम्र तेजी से घटेगी और पूरे उत्तर भारत की जल आपूर्ति पर इसका असर पड़ेगा।”
ग्लेशियरों की जैकेट बन चुकी है कमजोर
ग्लेशियरों को प्राकृतिक रूप से बर्फ की एक सुरक्षात्मक परत यानी जैकेट मिलती है, जो उन्हें सूर्य की तीव्र किरणों से बचाती है। यह जैकेट सूरज की ऊष्मा को परावर्तित कर ग्लेशियरों के पिघलने की प्रक्रिया को धीमा करती है। लेकिन अब यह परत समय से पहले पिघल रही है, जिससे सूर्य की गर्मी सीधे ग्लेशियर तक पहुंच रही है। परिणामस्वरूप, ग्लेशियर तेजी से सिकुड़ रहे हैं।
जलवायु वैज्ञानिक डॉ. मोनिका बिष्ट के अनुसार, “बर्फ की समय से पहले पिघलने की प्रक्रिया ने ग्लेशियरों की रक्षा प्रणाली को तोड़ दिया है। यह सीधे तौर पर हिमालय की जल-सुरक्षा को खतरे में डाल रहा है। अगर यही रफ्तार रही तो आने वाले दशकों में कई छोटे ग्लेशियर पूरी तरह समाप्त हो सकते हैं।”
क्यों बढ़ रही है मानवीय गतिविधियों की भूमिका?
बदरीनाथ धाम जैसे धार्मिक स्थलों पर हर साल लाखों श्रद्धालु पहुंचते हैं। सरकार द्वारा चारधाम यात्रा को सुगम बनाने के लिए सड़कों, होटल्स और यातायात साधनों के तेजी से विस्तार ने प्राकृतिक संतुलन को प्रभावित किया है। पहाड़ों में भारी निर्माण, पेड़ों की कटाई, और बढ़ते पर्यटन ने स्थानीय पारिस्थितिकी को असंतुलित कर दिया है।
इसके साथ ही, वाहनों से निकलने वाला धुआं, प्लास्टिक और अन्य कचरे का बढ़ता बोझ तथा पर्वतीय इलाकों में मानव हस्तक्षेप ने स्थानीय जलवायु पर प्रतिकूल असर डाला है।
ग्लोबल वार्मिंग का हिमालयी असर
वैज्ञानिकों की रिपोर्टों के अनुसार, हिमालयी क्षेत्र में औसत तापमान हर दशक में 0.2 डिग्री सेल्सियस की दर से बढ़ रहा है। यह वृद्धि दुनिया के औसत से कहीं ज्यादा है। इसका सीधा असर बदरीनाथ, केदारनाथ, गंगोत्री और यमुनोत्री जैसे हाई एल्टीट्यूड क्षेत्रों में देखने को मिल रहा है।
IPCC (Intergovernmental Panel on Climate Change) की ताजा रिपोर्ट के मुताबिक, “हिमालय के कई छोटे ग्लेशियर 2040 तक पूरी तरह पिघल सकते हैं, अगर वर्तमान उत्सर्जन दर और तापमान वृद्धि जारी रहती है।”
भविष्य के लिए खतरे की घंटी
बर्फ के पिघलने से सबसे पहले नदियों की जलधारा प्रभावित होगी। शुरुआत में जलप्रवाह तेज होगा, लेकिन जैसे-जैसे ग्लेशियर खत्म होंगे, गर्मी के महीनों में नदियां सूखने लगेंगी। गंगा और यमुना जैसी नदियों का प्रमुख स्रोत हिमालयी ग्लेशियर हैं। इनका कमजोर होना पूरे गंगा-ब्रह्मपुत्र बेसिन को संकट में डाल सकता है, जहां भारत की लगभग 40% आबादी निर्भर है।
इसके अलावा, ग्लेशियरों के पिघलने से ग्लेशियर लेक आउटबर्स्ट फ्लड्स (GLOFs) यानी अचानक झील फटने जैसी घटनाओं की संभावना भी बढ़ती है। इससे नीचे बसे गांवों, कस्बों और तीर्थ स्थलों को भारी नुकसान हो सकता है।