सरकार शब्द भले ही भारी-भरकम लगे, लेकिन इसकी बुनियाद कुछ चुनिंदा अफसरों पर ही टिकी होती है। राज्य छोटा हो या बड़ा, फैसले वही लेते हैं जिनके पास फाइलों की चाबी और सत्ता के गलियारों का नक्शा होता है। उत्तराखंड इसका सबसे बड़ा उदाहरण है—जहां सरकारें बदलीं, मुख्यमंत्रियों के चेहरे बदले, पर अफसरशाही की पकड़ हमेशा मजबूत रही।
हाल ही में राष्ट्रपति के आगमन के दौरान कांग्रेस विधायक आदेश चौहान ने सदन में ब्यूरोक्रेसी की मनमानी का मुद्दा उठाया। उन्होंने कहा कि अधिकारी जनता के प्रतिनिधियों को नज़रअंदाज़ कर अपने मन से फैसले ले रहे हैं। यह बयान उत्तराखंड के राजनीतिक तंत्र में एक पुरानी बहस को फिर से जिंदा कर गया—क्या इस राज्य में असली शासन राजनीतिक नेतृत्व के पास है या नौकरशाही के हाथों में?
मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी को खुद अफसरों के बचाव में उतरना पड़ा। उन्होंने कहा कि अधिकारियों ने अपनी जिम्मेदारी निभाई है और सभी को समन्वय से काम करना चाहिए। लेकिन यह बयान कई पुराने दौरों की याद दिला गया—जब सरकारें नौकरशाही के आगे झुकती नहीं, बल्कि उन्हें अनुशासन का पाठ पढ़ाती थीं।
ऐसा ही दौर था पूर्व मुख्यमंत्री मेजर जनरल भुवन चंद्र खंडूरी (सेवानिवृत्त) का ,,,खंडूरी जी का कार्यकाल (2007–2009) उत्तराखंड प्रशासनिक इतिहास का एक अलग अध्याय है। सेना से आने वाले अनुशासन और पारदर्शिता के साथ उन्होंने जब कमान संभाली, तो अफसरशाही के गलियारों में हलचल मच गई थी। उन्होंने नौकरशाही को जवाबदेह बनाया, कामकाज को पारदर्शी किया और “ईमानदारी ही पहचान” जैसा संदेश दिया।
खंडूरी जी ने ही राज्य में पहली बार लोकायुक्त कानून को गति दी, जिससे अधिकारियों पर लगाम कसने का रास्ता खुला। यही वजह थी कि कई वरिष्ठ अधिकारी उनके सख्त रवैये से नाखुश भी रहे।
कहा जाता है कि उस समय सचिवालय में अफसर बैठक से पहले पूरी तैयारी करते थे, क्योंकि खंडूरी जी आधे-अधूरे जवाब बर्दाश्त नहीं करते थे।
उनके बाद आए कई मुख्यमंत्रियों के दौर में फिर वही पुरानी चाल लौट आई—अफसर मजबूत, नेता मजबूर। नीतियां अक्सर फाइलों में अटक गईं, और नेताओं की घोषणाएं “कमीटी गठित” के चरण में ही रह गईं।
आज जब कांग्रेस विधायक ब्यूरोक्रेसी की मनमानी पर सवाल उठा रहे हैं, तो यह सिर्फ एक घटना नहीं बल्कि उस पुराने घाव को कुरेदने जैसा है जो राज्य गठन के बाद से भर नहीं सका।
उत्तराखंड में लोकतंत्र की सबसे बड़ी चुनौती यही है—राजनीतिक नेतृत्व और प्रशासनिक मशीनरी के बीच संतुलन कायम रखना।
अगर यह संतुलन टूटता रहा, तो सरकारें जनता के बीच भरोसे से नहीं, बल्कि फाइलों के बोझ तले दबकर चलती रहेंगी।
और तब “देवभूमि उत्तराखंड” सिर्फ आस्था का नहीं, अफसरशाही के आशीर्वाद का प्रदेश बनकर रह जाएगा।